प्राचीन लिपि अध्ययन की विधा को पुरालिपि (इपिग्राफी) का नाम दिया जाता है| भारतीय लिपि एवं भाषाओं में हमें अनेक ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं, लेकिन उनका अध्ययन कर उन्हें भारतीय ज्ञान परम्परा व इतिहास का प्राथमिक स्रोत बनाना तभी संभव है जब हम उन ग्रंथों को उनके मूल स्वरुप में पढ़ और समझ पाएं| पुराणों से लेकर 12वीं सदी तक के लेखन में प्रमुख रूप से भाषा में पाली, प्राकृत, तमिल और संस्कृत मिलती है, वहीं लिपि में ब्राह्मी, खरोष्ठी, आरमेइक और देवनागरी मिलती है| इन्हें पढ़ने के लिए हमें लिपि ज्ञान के साथ भाषा लेखन का ज्ञान भी आवश्यक है| 

इस्लामिक काल में अरबी-फ़ारसी और ब्रिटिश काल में अंग्रेजी या अन्य यूरोपीय भाषाओं ने विश्व की अन्य समृद्ध भाषाओं को निगल लिया| भाषा के सिकुड़ने या उसके अस्तित्व समाप्त होने से हमें अपने ही ग्रंथों के अध्ययन में समस्या आने लगी और हम विदेशी संदर्भों और दर्शन के पिछलग्गु बन गए| इस समस्या से पार पाने का साधन सिर्फ पुरालिपि (इपिग्राफी) का विस्तृत अध्ययन और प्रचार है| इसी उद्देश्य को लेकर हम पुरालिपि पर एक कार्यशाला का आयोजन आगामी जून 2024 की 06,07,08 व 09 तारीख को कर रहे हैं| इस विषय के मूल बिन्दु विचार कर कुछ लिपियों और भाषाओं के लिए तकनीक सत्रों का आयोजन लिया जाएगा| इसमें इसके विश्वस्तर विद्वानों को आमंत्रित किया जा रहा है| 

आइये अपने देश के बिखरे हुए ज्ञान-विज्ञान को समझने, शोध करने तथा विश्व के समक्ष सत्य उद्घाटित करने की मुहिम से जुड़ें| 

यदि आप भी इतिहास की गहराइयों में उतरना चाहते हैं, यदि आप पुराने लेख, ग्रंथों को समझकर हमारी संस्कृति की उत्कृष्टता सिद्ध करना चाहते हैं तो आइये ‘राष्ट्रीय पुरालेख एवं भाषा विज्ञान’ कार्यशाला में भाग लेने के लिए पंजीकरण करवाइए |

 

सहआयोजक :- साहित्य सेवा संस्थान, जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय

संयोजक   

डॉ. विवेक भटनागर

अनुदेशक     

प्रो. बैद्यनाथ लाभ
डॉ. टी.एस. रविशंकर
डॉ. धर्मवीर शर्मा
डॉ. जे.के.ओझा
डॉ. सूरज राव
डॉ. देव कोठारी

विषय:- भाषाई परंपरा में जीवंत भारत

समय:- 11:00 AM से 12:15 PM

डॉ. ईश्वर शरण विश्वकर्मा
डॉ. अभिजीत दांडेकर
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